बुन्देल केशरी महाराजा छत्रसाल को हमने अपने इतिहास से मानो हटा ही दिया है | किताबों में हमें कभी भी बुन्देल केशरी महाराजा छत्रसाल के बारे में जानने को नहीं मिलता है | इसलिए इस पोस्ट में हम आप को महाराजा छत्रसाल के बारे में बताने जा रहे है |
महाराजा छत्रसाल का जीवन 82 वर्ष का रहा जिसमे से 44 वर्ष का राज्यकाल रहा और इतने समय में महाराजा ने 52 युद्ध लड़े | महाराजा अपनी वीरता के लिए जितने प्रसिद्द थे लेकिन उतने ही प्रसिद्द महाराजा अपनी लेखिनी के लिए भी थे |
परिचय
नरेश चंपतराय एवं महारानी लालकुंवरि के पुत्र थे महाराजा छत्रसाल | 4 मई सन 1649 को टीकमगढ़ जिले के लिघोरा विकास खंड के अंतर्गत ककर कचनाए ग्राम के पास स्थित विंध्य-वनों की मोर पहाड़ियों में महाराजा छत्रसाल का जन्म हुआ था।
शुरू से ही महाराजा छत्रसाल का जीवन बहुत ही संघर्षपूर्ण था |
5 वर्ष की आयु में उन्हें उनके मामा श्री साहेबसिंह धंधेर के पास देलवारा भेज दिया गया ताकि वे युद्ध कौशल की शिक्षा प्राप्त कर सके | महाराजा युद्ध कौशल की शिक्षा प्राप्त करके बड़े हो रहे थे लेकिन इसी बीच उनके पिता चंपतराय जी के साथ युद्ध में विश्वाश्घात हुआ | उनके गुप्तचर जिनपर उन्हें बहुत विश्वास था , सारी युद्धनीति शत्रुओ के सामने उजागर कर दी जिसके चलते महाराजा को बहुत क्षति हुई | चंपतराय जी अपने आखिरी समय में थे वे नहीं चाहते थे कि शत्रु महारानी लालकुंवरि तक पहुंचे वे नहीं चाहते थे कि महारानी को अपमानित जीवन जिये | और इसीलिए महाराजा चम्पतराय एवं महारानी लालकुंवरि ने आत्म आहुति दे दी | माता-पिता की मृत्यु के समाया महाराजा लगभग 12 वर्ष के थे इस उम्र में महाराजा से उनकी जागीर छीन ली गयी परन्तु महाराजा किसी तरह माँ के गहने लेकर भाग निकले |
माता-पिता की मृत्यु के बाद
महाराजा अपने भाई के साथ जा कर अपने पिता के मित्र राजा जयसिंह से मिले और वही उन्होंने सैन्य प्रशिक्षण लेना शुरू कर दिया | कुछ दिन बाद उनकी वीरता देख सारे लोग प्रभावित थे | राजा भी छत्रसाल से प्रभावित थे इसीलिए उन्होंने छत्रसाल को अपने कमरे में बुलाया और उन्हें अपने विशेष सेना दल में शामिल कर लिया | उन्हें विशेष प्रशिक्षण दिया जाने लगा ताकि वे भविष्य में बड़ी जिम्मेदारी उठा सकें |
प्रथम युद्ध
औरंगज़ेब ने राजा जयसिंघ को दक्षिण विजय का कार्य सौंपा था और इसके लिए छत्रसाल को उन्होंने अपनी सेना का सेनापति नियुक्त किया | छत्रसाल ले लिए अपनी वीरता दिखने का मानो ये स्वर्ण अवसर था |
सन 1665 के बीजापुर के इस युद्ध में छत्रसाल ने अपनी वीरता दिखाई और देवगढ़ , छिंदबाड़ा के गौंड राजा को हराने में अपनी जान लगा दी | इस युद्ध के बारे में कहा जाता है कि यदि उनका घोड़ा उनकी रक्षा न करता तो वे अपनी जान गवां देते | इतनी वीरता दिखाने के बाद भी विजयश्री का सेहरा औरंगज़ेब ने छत्रसाल के सर नहीं बाँधा जिसके बाद छत्रसाल को मुग़लो की नीयत समझ आयी और उन्होंने दिल्ली सल्तनत की सेना छोड़ दी |
छत्रसाल और छत्रपति शिवाजी की मुलाक़ात
सन 1668 को छत्रसाल की छत्रपति शिवाजी से मुलाक़ात हुई | छत्रपति शिवाजी अपनी गद्दी पर विराजमान थे तभी छत्रसाल उनके समक्ष आये | इस मुलाक़ात में छत्रपति शिवाजी छत्रसाल से और भी प्रभावित हुए क्योकि अब छत्रसाल अपनी मातृभूमि के लिए मुग़लो से लड़ना चाहते थे | छत्रपति शिवाजी कहते है कि वे उनकी हर संभव मदद करेंगे और छत्रसाल भी अपनी मातृभूमि के लिए अपने प्राणो की वाजी लगाने तक का वचन देते है |
इसके बाद छत्रपति शिवाजी छत्रसाल को समर्थगुरु रामदास के पास ले जाते है जिसके बाद छत्रसाल समर्थगुरु रामदास जी का आशीष लेते है और वापिस बुंदेलखंड लौट आते है |
बुंदेलखंड लौट आने के बाद
बुंदेलखंड की परिस्थिति बहुत ख़राब थी अधिकतर राजा मुग़लो से बैर नहीं रखना चाहते थे यहाँ तक कि छत्रसाल के भाई बंधू भी दिल्ली सल्तनत से लड़ने को राज़ी नहीं थे | छत्रसाल के बड़े भाई रतनशाह ने भी उनका साथ नहीं दिया | छत्रसाल के पास स्वयं धन सम्पत्ति कुछ भी नहीं थी | जब वे दतिया गए तो दतिया नरेश ने उनकी वीरता की तारीफ तो की लेकिन औरंगज़ेब से बैर न करने की सलाह भी दे दी | इसके बाद छत्रसाल अपने बचपन के साथी महाबली तेली के पास गए उनके पास उन्होंने अपनी माता के गहने गिरवी रखवा दिए और मिले हुए पैसो से 5 घुड़सबार और पच्चीस पैदल की सेना तैयार की | लेकिन कुछ समय पश्चात उन्होंने काफी बड़ी सेना तैयार कर ली | चचेरे भाई बलदीवान ने भी छत्रसाल का साथ देने का फैसला कर लिया |
बुन्देल केशरी महाराजा छत्रसाल का पहला आक्रमण
छत्रसाल ने पहला आक्रमण अपने माता पिता के साथ विश्वासघात करने वाले सेहरा के धंधेरो पर किया | कुंवर सिंह के साथ उसकी मदद को आये हासिम खां को भी कैद में ले लिया गया | सिरोंज और तिवरा लुटे गए साड़ी संपत्ति जो लूटी गयी वह छत्रसाल ने अपनी सेना में बांट दी | सेना बढ़ती गयी | इटावा, खिमलासा, गढ़ाकोटा, धामौनी, रामगढ़, कंजिया, मडियादो, रहली, रानगिरि, शाहगढ़ छत्रसाल ने जीत लिए इसके बाद ग्वालियर का खजाना लूटा और सूवेदार मुनव्वर खान की सेना को पराजित किया और बाद में नरवर भी जीत लिया |
औरंगज़ेब ने 30 हजार की सेना भेजी थी छत्रसाल को पराजित करने के लिए लेकिन ऐसा नहीं हुआ | छत्रसाल ने बुंदेलखंड से मुग़लो का शासन समाप्त कर दिया और पन्ना में अपनी राजधानी स्थापित की |
बाजीराव पेशवा से सहायता प्राप्त
छत्रसाल को अपने जीवन के अंतिम पलो में भी आक्रमणों का सामना करना पड़ा | 1729 में मुहम्मद शाह के शासन में प्रयाग के सूबेदार बंगस ने आक्रमण किया | छत्रसाल ने मुग़लो से लड़ने के लिए दतिया के राजा एवं अन्य राजाओ से सहायता मांगी लेकिन उन्होंने सहायता नहीं की यहाँ तक की उनके स्वयं के पुत्र ने उनकी सहायता नहीं की ह्रदयशाह उदासीन होकर अपनी जागीर पर बैठा रहा | तब छत्रसाल ने बाजीराव पेशवा से मदद मांगी जिसके बाद बाजीराव पेशवा ने उनकी मदद की और बंगस को पराजित किया | इसके बाद बंगस हार कर लौट गया | छत्रसाल ने उपहार स्वरुप बहुत कुछ दिया और साथ ही मस्तानी भी दी |
महाराजा छत्रसाल ने 20 दिसंबर 1731 को अपना देह त्याग दिया |
महाराजा छत्रसाल की वीरता को दर्शाती कुछ प्रचलित बुंदेली पंक्तिया :
इत यमुना, उत नर्मदा, इत चंबल, उत टोंस।
छत्रसाल सों लरन की, रही न काहू हौंस॥
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